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बैग की सीट और टिकी मेरी पीठ

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Hindi Poetry

बैग  की  सीट

बैग की सीट

मुंबई के लोकल सफ़र में,
मेरे बैग को लगभग रोज़ ही मिल जाती है सीट…

न भी मिले तो जुड़े हुए डोरी-हाथों से अपने
करता है अपील
न-नुकर करते-करते, मुकरते हुए एहसान करते
स्टैंडिंग ज़मींदार लोग ज़रा हाथ लगाते हैं…
बैग मियाँ लटक जाते हैं
और हम पर एहसान करते हैं…

लटके-अटके या ऊपर सीट पे बैठे-ऐंठे हुए
मुझे देखता है वो

कभी गेट की साइड-लाइन में फंसे-धंसे-कसे
पंजों-एड़ी के बल किसी तरह टिके हुए
कभी हाथों से आजू-बाज़ू के पोल के सहारे
ज़ोर लगाते या ऊपर लटकते ‘पाव’ से दिखते
हैंडल का एक टुकड़ा झपटते हुए

धक्का-मुक्की माथा-पच्ची रगड़ा-रगड़ी
झगड़ा-झगड़ी…बनती चटनी के चटखारे हैं
आज बैठे हैं हम तो तशरीफ़ है ख़ुश और
ज़हन में ये लफ्ज़ान आरए हैं

आज सीट से टिकी है हमरी भी पीठ…
तो लो फिर एंडिंग में करें स्टार्टिंग रिपीट
मेरे बैग को लगभग रोज़ ही मिल जाती है सीट!!!

4 Comments

  1. RP Shrivastava says:

    Excellent!

  2. Vishvnand says:

    Vaah, Vaah , Badhiyaa abhiyati aur lekhan , manbhaavan, Badhaaii…!
    Insaan ko bhii aaj khud se bhi uske bag kii jyaadaa hai ijjat
    kyuunkii insaan me kahaan aaj uske bag/pakit mein rahatii hai keemat ….!

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