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किस मिट्टी के बनें हैं ?
Hindi Poetry |
सोचो,
ज़रा सोचो, ये किस मिट्टी के बनें हैं
सर से पाँव तक, धूप के गाँव तक
फ़र्ज़ और बेबसी दोनों से सने हैं
सोचो,
ज़रा सोचो, ये किस मिट्टी के बनें हैं
कभी इन पे कुदरत कहर बन के गिरती
अभावों की बदली कभी इन पे है घिरती
मन के घाव तक, तन के दांव तक
कटी शाखें लिए पेड़ के तने हैं
सोचो,
ज़रा सोचो, ये किस मिट्टी के बनें हैं
भरते सबकी थाली में, ख़ुद मिट के निवाला
खेत में जुतते तलवे, खा रहे चल के छाला
कौए की कांव तक, छोड़ के छाँव तक
शहर से लेने आये हक़ अपने हैं
सोचो,
ज़रा सोचो, ये किस मिट्टी के बनें हैं
kisaano ke dard ko ukerati rachanaa
shukriya vivek ji…bas iss adni kalam ka ek prayas, jazbaat ke zariye!
Amazing Reetesh jee
Loved the poem
Too good Ritesh! 🙂
बहुत खूब! कवि को नमन!