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यह हिन्द का मज़दूर है!

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यह हिन्द का मज़दूर है!
दीपक राज़दाँ

जो रक्त अपना बहा रहा,
जो श्वास अपनी गवाँ रहा,
जो स्वार्थ के समक्ष, व्यर्थ,
अस्तित्व अपना लुटा रहा,
यह हिन्द का मज़दूर है,
जो हिन्द में मजबूर है।

जो नदियों के तूफान पर,
बांध, पुल बना रहा,
जो पहाड़ की चट्टान भेद,
सुरंग रेल बिछा रहा,
जो समुद्र के अथाह में, निडर,
मत्स्य धन जुटा रहा,
यह हिन्द का मज़दूर है,
जो हिन्द में मजबूर है।

जो भवनों के निर्माण में,
निर्वस्त्र फुटपाथ सो रहा,
जो सीवरों की सफ़ाई में,
विषगैस सहर्ष भोग रहा,
जो खानों के अन्धकार में,
जीवन का अर्थ बूझ रहा,
यह हिन्द का मज़दूर है,
जो हिन्द में मजबूर है।

जो राजमार्ग फैला रहा,
जंगलों में मृत्यु समक्ष,
जो अलंग पोत फोड़ रहा,
मार आत्मा, शरीर स्वस्थ,
जो खेत में झुलस रहा,
भोग अन्नजल सदा अभक्ष्य,
यह हिन्द का मज़दूर है,
जो हिन्द में मजबूर हैं।

जो कारखानों में अग्नि सम्मुख,
भूखज्वाला अपनी भुला रहा,
जो दफ्तरों में अल्पकाल,
श्रम अवसर, निम्न, खोज रहा,
जो सूचनातन्त्र भीड़ में,
विसंगतियों से जूझ रहा,
यह हिन्द का मज़दूर है,
जो हिन्द में मजबूर है।

जो प्रगति की उड़ान में,
घृणित व्यय बोझ बन गया,
जो राष्टृ के हर पर्व में,
अनजाना घोषित हो गया,
जो दिशाबहुल विकास में,
न्यायदिशा ढूंढ़ रहा,
यह हिन्द का मज़दूर है,
जो हिन्द में मजबूर हैं।

2 Comments

  1. kusum says:

    Very well expressed poem.
    What would happen to our daily lifestye if all these labourers did not work for us?
    Good tribute to our Mazdoor class.
    Hats off to them. God bless them with peace and happiness.
    Kusum

  2. sonal says:

    Very nice poem

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