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रूकी-रूकी सी ये ज़िंदगी
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रूकी-रूकी सी ये ज़िन्दगी,
जाने कौन से खयालो में डूबी है,
निंदो में उलझी सी,
किन ख्वाबो को ढूंढ़ती है,
किस तरफ जाना है इसको,
किन बातो से अंजान है,
किस डगर पे है मंजिल इसकी,
किसी चौराहे पर, खड़ी परेशान है,
पूछती है ये मुसाफिरो से,
पता कोई, जो अब खुद इसको ही मालूम नहीं,
हैं कोई, अनदेखा सा मंजर,
आता जो, अब खुद इसको ही याद नहीं,
चलती तो है, मगर फिर वापिस वही आ जाती है,
फिर उसी कमरे में, तकिया लगा सो जाती है,
रूकी-रूकी सी ये ज़िंदगी, रुकी-रूकी सी ये ज़िंदगी !!
Good one.
Thank you 🙂