माँ-बाप ने नाम राज रखा,फिर राजीव श्रीवास्तवा और कर्म कुछ ऐसे हुए की डॉक्टर राजीव श्रीवास्तवा कहलाने लगा.
जिंदगी यू ही बस धीमी गति से चली जा रही थी,की एक दिन जहन मे कुछ पंक्तियाँ उथल -पुथल मचाने लगी ,उन्हे ठीक से समायोजित किया तो एक कविता बन गयी,खुद को अच्छी लगी ,सो कुछ मित्रो को सुनाया उन्होने भी तारीफ करी सो होसले और बुलंद हुए .फिर पीछे मुड़ कर नही देखा ,लिखना शुरू किया और कई सारी रचनाएँ लिख डाली ,अब आलम ये है की हर चीज़ मे कविता नज़र आती है.ये बड़ी ही प्यारी चीज़ है.एक सच्ची दोस्त,हमसफर,तन्हाई की साथी .बस इसे याद करो और थोड़ा ध्यान लगाओ, ये नये -नये रूपो मे प्रकट हो जाती है,कभी संजीदा,कभी चुलबुली,कभी हास्यस्प्रद,कभी मर्मस्पर्शी अनेको रूप है इसके अब ऐसा लगता है की- मैं कविता नही लिखता ये कविता मुझसे लिखवती है!
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Most appropriate timely poem about current Corona scare.
Nice poem.
Lovely thoughtful poem on the subject indeed; kyaa baat hai, hearty commends…!