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“खुद” से मुलाकात
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एक रोज खुद से मुलाकात हुई ,
बातों ही बातों में कई बात हुई।
खुद से गिले- शिकवे थे हजारों ,
जैसे खुद में ही पड़ी थी दरार कोई।
मेरे अक्स ने पूछे सवाल कई,
न जाने कब से मुझसे नाराज थी,
नजरअंदाज करती रही मैं भी।
खो गयी क्यों भीड़ में दुनिया की ?
क्यों हो गयी तुम गुमनाम कहीं ?
पहली सी बन जाओ ,बना लो पहचान वही,
थाम लो हाथ मेरा और भर लो उड़न नई।
………………………राजश्री राजभर
Hello!
Nice to be reading your poem after a long time
Very nicely written. Good bhavavyakti
nice mam