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मंदिरों और मस्जिदों में क्या धरा है?
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आदमी का आदमी से मन भरा है
भीड़ से इन्सान इक इतना डरा है
धर्म है पाखंड है ढकोसले है
मुफ्त बांटी रेवड़ीया चोंचले है
सूखते नलकूप सारे न जल भरा है
बन रहे है वे मसीहा मंच पर है
छल कपट के दांव सारे प्रपंच भर है
दिखते दुर्दिन सारे फिर भी हरा है
अंत मे आरंभ में वह मौन है
दिख रही परछाइयों में कौन है
मंदिरों और मस्जिदों में क्या धरा है